Tuesday 7 April 2020

YOUR WRIST-WATCH IS A TIME-MACHINE FOR ME.

हम दोनों के दरम्यान कुछ नहीं हो...
हो तो बस... एक शहर हो... पेरिस या न्यूयॉर्क जैसा।
दिल्ली भी चलेगा...
उस शहर में एक जगह हो मॉन्टमार्ते या टाइम्स स्क्वायर जैसा।
उस जगह में एक रेस्टोरेंट हो कॉमिस या नूड्स एन चिल जैसा।
उस शहर में शाम हो नार्टेड्रम डी पेरिस या कैपिटल हिल से दिखने वाला जैसा।

और...
उस शाम में उस शहर में,
उस जगह में,
उस रेस्टोरेंट में और रेस्टोरेंट की उस एक कुर्सी पर तुम बैठी हो... सिर्फ तुम।
तुम्हारे सामने ठीक मैं...
हमारे कानों में सिम्फनी घुल रही हो...
वॉयलिन की हल्की छुअन...
 
तुम कॉफी में चीनी को हौले-हौले मिलाती हो।
जैसे लिपिस्टिक को आहिस्ते-आहिस्ते होठों की हदों के भीतर करीने से कैद करती हो।
जैसे तैयार होने के बाद लॉस्ट मोमेंट पर आईने के सामने फेस की स्कीम-रीडिंग करती हो।
दरवाज़े के हैंडल को खोलने के ठीक पहले राधा-कृष्ण की तस्वीर को देखती हो।
दरवाज़े से बाहर निकलने के बाद आखिरी सीढ़ी पर ठहरी तुम...
बायां पैर नीचे और दायां पैर ऊपर रखकर बाईं कलाई पर बंधी घड़ी में टाइम देखती हो।
मोबाइल पर दोबारा टाइम देखती हो।
तुम आखिरी सीढ़ी पर पहुंचने के दौरान एकबार पीछे मुड़कर घर की तरफ देखती हो।
इस दौरान तुम्हारे शरारती बाल चेहरे को ढक लेते हैं।
तुम बाएं हाथ से धीरे-धीरे बाल को पीछे करती हो।

और...
कॉमिस या नूड्स एन चिल जैसे रेस्टोरेंट में तुम्हारे सामने बैठा मैं।
मेरा दिल तुम्हारी बालों को पीछे होता देख एकमुश्त नहीं, किस्तों में खर्च होता है।

तुम कॉफी के प्याले को होठों से छूती हो।
जैसे तुम्हारे होठों और प्याले के बीच की दूरी मेरे लिए मैराथन दौड़ है।
जैसे मैं जमीन से आसमान की दूरी नाप रहा हूं।
तुम कॉफी की पहली घूंट खुद के अंदर दाखिल करती हो।
जैसे मखमली घास पर कोई बच्चा पहली बार हंसते हुए चल रहा है।
जैसे कोई मां बच्चे को पहली बार दूध पिलाने का सौभाग्य पाती है।
कॉफी का तुम्हारी जुबां से दिल तक का सफर भी वैसा ही है।
कॉफी तुम्हारे गले से नीचे हौले-हौले उतरती है...
जैसे टाइम्स स्क्वायर पर लगे बिलबोर्ड में रेवलॉन की सुपरमॉडल क्लाउडिया शिफर की कैटवॉक करती तस्वीर है।
उसकी पर्सनैलिटी और तुम्हारे कप में अंतर नहीं दिखती मुझे।
जैसे तुम्हारे हाथ में कॉफी का प्याला समुद्र मंथन से निकला अमृत कलश है।
तुम बाएं हाथ से कॉफी को प्लेट पर रखती हो।
तिरछी चेहरे से मुझे देखती हो,
तुम्हारे होंठ कुछ सेकेंड के लिए हिलते हैं,
कुछ कहते नहीं...
कुछ देर की चुप्पी के बाद तुम बाएं हाथ की कोहनी को टेबल पर टिकाती हो।
शरारती नज़रों से मेरी तरफ देखकर दोनों भौंह को दो बार उठाकर गिराती हो।
मैं तुम्हारी आंखों में अमृत पी रहा... कॉफी बेस्वाद है।
बाएं हाथ से मैं कॉफी साइड करता हूं...
तुम्हारी तरफ देखता हूं...
दोनों आंखों को एक सेकेंड में दो बार झपकाता हूं।
तुम्हारी घड़ी मेरे लिए टाइम मशीन है।
मैं उसके सहारे कॉमिस या नूड्स एन चिल से काफी पहले इंद्रसभा में पहुंच चुका हूं।

और...
तुम मुझसे कपड़े रंगने का मनुहार करती हो...
मैं सिर्फ तुम्हारा रंगरेज़ जो ठहरा...
तुम सिर्फ मेरी मेनका जो ठहरी...
मैं तुम्हारे कपड़े सिर्फ अपने दिल से बने थैले में रखता हूं।
मैं लौटने के लिए आगे बढ़ता हूं...
तुम आवाज़ लगाती हो...
सुनो रंगरेज़... चाय पीकर जाना... मैं पीछे पलटता हूं।

तुम बाएं हाथ से टेबल के सहारे टिकाए सिर को उठाती हो और घड़ी देखती हो।
ओह... रात के नौ बज गए... मुझे घर जाना होगा...
मेरा सपना टूटता है...
तुम फिर घड़ी देखती हो।
मैं इंद्रसभा से जाने लगता हूं।
तुम्हें आंखों से रेस्टोरेंट के उस टेबल पर बॉय बोलता हूं।
तुम अपने घर की आखिरी सीढ़ी पर उतरने के पहले घड़ी देखती हो।
ओह... शिट्... नौ बज गए...
रेस्टोरेंट जाने में लेट हो रहा है...
तुम मोबाइल देखती हो...
दोबारा कहती हो...
ओह... शिट... नौ बज ही गए...
तुम ओला कैब बुक करके कनॉट प्लेस की तरफ बढ़ती हो।
कैब में एक किस्त में जुल्फों को पीछे करती हो।
ड्राइविंग सीट पर बैठा मैं बैक मिरर में तुम्हें देख रहा हूं।
मेरा दिल एकमुश्त में खर्च हो जाता है।
मेरी नज़र तुम्हारी घड़ी पर है...
वो घड़ी मेरी टाइम मशीन है...
मैं घड़ी के सहारे कॉमिस या नूड्स एन चिल रेस्टोरेंट की खूबसूरती चुरा लेता हूं...

मैं इंद्रसभा के ठीक बाहर अपनी दुकान पर काम कर रहा हूं...
तुम्हारे दुपट्टे में क्लाउडिया शिफर की मुस्कुराहट नहीं तुम्हारी आंखों के रंग उकेर रहा हूं।
अचानक तुम कहती हो... कॉफी कैसी लगी...
और...
अपनी ऑफिस के टेबल पर बैठा मैं कंप्यूटर की स्क्रीन को देखने लगता हूं।
दोनों हाथों को सिर के पीछे करते लंबी सांसें लेता हूं।
मैं तुम्हारी जि़ंदगी में उसी घड़ी के जैसे आना चाहता हूं।
 
जानती हो...
मेरे हर पल में एक शाम आती है...
जब तुम्हारी आंखें शब्दों की शक्ल में की-बोर्ड पर थिरकने लगती हैं।
मैं सिर्फ तुम्हें लिखता हूं।
मेरे शब्द तुम्हारी आंखों के जंगल में जुगून के मानिंद रास्ता तलाशते हैं।
मैं पेरिस, न्यूयॉर्क, कनॉट प्लेस के रास्ते तुम्हें पा लेता हूं.

बस...
इतनी ही काबिलियत है मेरे मोहब्बत की।

Sunday 4 December 2016

बाबुल की इज्जत



अरे बिटिया जरा बबुआ को गोद में उठा लो मैं सीट पर बैठ जाऊंगा।
अपर्णा को आवाज जानी-पहचानी लगी और उसने घूंघट हटाकर देखा तो पता चला कि
वे मास्टर साहब हैं, जिनसे पढऩे के दौरान कितनी बार मार खाई थी। एकबारगी
तो उसने चाहा कि बबुआ को बैठा रहने दे, लेकिन ठहरी तो वह मां तो झट से
बबुआ को गोद में बैठा लिया।
सीट पर बैठते ही बस भी चल पड़ी और मास्टर साहब की बातें भी।
अपर्णा चुपचाप उनकी आवाज सुनती जा रही थी, और वे देश से लेकर दुनिया तक
के तमाम मुद्दों पर बोलते जा रहे थे।

-------------------------------
अचानक अपर्णा ने घूंघट हटाया और उनकी तरफ देखा, चश्मा को ठीक करते हुए
मास्टर बोले अरे तुम...
बड़े ठाकुर तो बोल रहे थे कि तुम विदेश चली गई हो किसी राजकुमार से शादी
करके। अब तुम शहर चली गई पढऩे, तो तुम्हारी हवेली का रास्ता भी भूल गया।
कभी-कभी तुम्हारे बाबूजी बड़े ठाकुर के बारे में बच्चों से सुनने को मिल
जाता है।
कुछ महीने पहले गया था उनसे मिलने तो तुम्हारे बारे में पता चला।
और बताओ दूल्हे बाबू कहां हैं और तुम बड़े ठाकुर की बेटी होकर खटारा बस में कैसे?
आसपास के लोग भी बड़े ठाकुर का नाम सुनकर चौकस हो गए और अपर्णा की तरफ
एकटक देखने लगे।
अपर्णा खामोश रहना चाहती थी, कैसे बताए कि जिस दिन उसने बगान में काम
करने वाले रमेश से शादी की बड़े ठाकुर ने इज्जन की दुहई देकर उसे घर से
भगा दिया।
दुर्भाग्य यहां तक रहता तो ठीक ससुराल में भी सुख नहीं मिला। शादी के बाद
कुछ समय तक सब अच्छा लगता था लेकिन चूल्हे से उठते धुंए इतना तंग नहीं
करते जितना सास के ताने।
बबुआ हुआ तो ताने बढ़ गए थे, रमेश भी कामधाम छोड़ के घर बैठ गया।
बड़े ठाकुर की बेटी को दूसरों के घर में चौका-बर्तन करके परिवार चलाना पड़ रहा था।
प्यार की इतनी बड़ी कीमत चुकाई थी अपर्णा ने कि बस वो ही समझ सकती थी,
एक तो बड़े ठाकुर से रिश्ता टूटा ऊपर से पति की बीमारी से काम छूट गई।

---------------------------

अचानक बस हिचकोले लेता है तो अपर्णा का ध्यान भंग होता है। और वो एकटक
मास्टर साहब और भीड़ को देखने लगती है।
वो बताती है कि कार खराब हो गई तो बस में जा रही है। तभी कंडक्टर आकर
टिकट मांगता है। अपर्णा हाथ में दस रुपए के मुड़े नोट बढ़ाती है। लेकिन
भाड़ा तो बीस रुपए था सो बकझक शुरू।
अपर्णा भी कंडक्टर से भिड़ गई, अगर लूटना ही है तो बैंक चले जाओ। इतना ही
भाड़ा है लेना है तो लो नहीं तो चलते बनो।
हालांकि मास्टर साहब बीच-बचाव करते हैं और अपनी तरफ से दस का नोट बढ़ा देते हैं।
अपर्णा हंसते हुए कहती है कि वो पर्स कार में रह गया था सो दस रुपए ही हाथ में हैं।
एकबार फिर मास्टर साहब पूछने लगते हैं ससुराल के बारे में...
इस बार अपर्णा बताने लगती है कि पति फैक्टरी लगवाने दूर परदेस गए हैं। अब
इतना बड़ा कारोबार है कि घर बैठकर संभाला नहीं जाता। आज यहां तो कल वहां।
साथ के यात्री भी हां में हां मिलाते हैं। शायद वे अपर्णा की स्थिति समझ
रहे थे।

---------------------------

अपर्णा बताती है कि शादी के बाद उसे बड़े ठाकुर की हवेली से ज्यादा खुशी मिली।
पति के पास सबकुछ है। सास तो बेटी मानती है। पैसे इतने हैं कि
गिनते-गिनते सात पीढ़ी अघा जाए।
नौकरों की फौज रहती है। बबुआ तो सबकी आंखों का तारा है। अब कपड़े इतने
गंदा करता है कि पता ही चल रहा कि आज इसने नया कपड़ा पहना है। खास ऑर्डर
देकर बनवाया है इसे मास्टर साहब।
मास्टर साहब को खुशी होती है कि चलो बड़े ठाकुर की बेटी अच्छे घर गई।
वे कहते हैं कि लड़की की शादी करना आसान है लेकिन घर बसाना मुश्किल।
बड़े ठाकुर के अच्छे कर्म के चलते ही अपर्णा खुश है। अन्य लोग हां में
हां मिलाते हैं।
तपाक से मास्टर साहब सवाल करते हैं वैसे बस से कहां जा रही हो, मायके....
अपर्णा इसका जवाब नहीं देना चाहती थी फिर भी कहा कि हां।

------------------------------

पिताजी ने बुलावा भेजा है आने को। वैसे बबुआ का पहला साल है तो हवेली ले
जा रही हूं।
अपर्णा गोद में सो रहे बबुआ को देखकर खुश होने का नाटक करती है।
यात्री भी खुश हैं कि उन्हें राजकुमारी के साथ बैठने का अवसर जो मिला है।
वो तो आज तक बड़े ठाकुर की हवेली का नाम सुनते थे या बाहर से देखा था।
आज हवेली की बेटी उनके बीच है तो खुश होना लाजिमी है।
अचानक कंडक्टर आवाज लगाता है कि हवेली जाने वाले आगे आएं बस रूकेगी...
मास्टर साहब समेत अधिकांश यात्री आगे बढ़ जाते हैं
अपर्णा अपनी सीट पर जमी रहती है।
मास्टर साहब उसकी ओर देखते हैं तो अपर्णा के आंखों से आंसू की धारा बह निकलती है।
वे समझ जाते हैं कि हवेली के बड़े ठाकुर की बेटी का दर्द।
वो सौ रुपए का नोट अपर्णा के हाथों में पकड़ाकर कहते हैं बबुआ को मिठाई
दिला देना और उतर जाते हैं।
अपर्णा नोट कंडक्टर की तरफ बढ़ाकर वापसी का टिकट मांगती है। भूख से बबुआ
बिलबिला रहा है।
मास्टर साहब सड़क से उतरकर पगडड़ी के सहारे अपने घर की तरफ बढ़ते जाते हैं।
अपर्णा दूर खेत के दूसरी छोर स्थित हवेली देखती है। अब वो वहां नहीं जाएगी।
इस बार उसे बाबुल की इज्जत का ख्याल था जो शादी के समय कहीं गुम हो गया था शायद...
--------------------------


Abhishek

5 December 2016, Sunday, Jaipur.

+91 9939044050
+91 9334444050